नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश में एक नाबालिग पर हुए हमले के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया है कि स्तनों को पकड़ना या पायजामे की डोरी खींचना बलात्कार या बलात्कार की कोशिश की श्रेणी में नहीं आता, बल्कि इसे गंभीर यौन उत्पीड़न (Aggravated Sexual Assault) माना जा सकता है, जो अपेक्षाकृत कम गंभीर अपराध है।
इस फैसले को लेकर तीखी आलोचना हो रही है और सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप की मांग भी उठ रही है। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में “तैयारी के चरण” और “वास्तविक प्रयास” के बीच अंतर स्पष्ट किया है।
क्या है मामला?
यह घटना 2021 में उत्तर प्रदेश के कासगंज की है, जहां 11 वर्षीय पीड़िता पर पवन और आकाश नामक दो युवकों ने हमला किया था। आरोप के अनुसार, आरोपियों ने लड़की के स्तनों को पकड़कर उसके पायजामे की डोरी खींची और उसे एक पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश की। जब लड़की की चीख-पुकार सुनकर लोग मौके पर पहुंचे, तो आरोपी वहां से फरार हो गए।
इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने आरोपियों के खिलाफ बलात्कार और पॉक्सो (POCSO) एक्ट के तहत मुकदमा चलाने का आदेश दिया था। लेकिन जब आरोपियों ने हाईकोर्ट में इस आदेश को चुनौती दी, तो न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा ने सोमवार को आरोपों को बदल दिया।
अब आरोपियों पर आईपीसी की धारा 354(b) (महिला को निर्वस्त्र करने की नीयत से हमला) और पॉक्सो अधिनियम की धारा 9 (गंभीर यौन उत्पीड़न) के तहत मुकदमा चलेगा।
हाईकोर्ट ने कहा कि “इस मामले में बलात्कार की कोशिश का आरोप नहीं बनता, क्योंकि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि अपराध ‘तैयारी’ की अवस्था से आगे बढ़ चुका था।”
फैसले की अहम बातें:
- न्यायालय ने कहा कि “बलात्कार की कोशिश का आरोप तभी साबित होता है जब यह स्पष्ट हो कि अपराध तैयारी से आगे बढ़ चुका था और अभियुक्तों की नीयत पूरी तरह स्पष्ट थी।”
- “रिकॉर्ड में ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि आरोपियों की मंशा बलात्कार करने की थी।”
- “पीड़िता के कपड़े पूरी तरह नहीं उतारे गए थे और न ही कोई प्रत्यक्ष यौन हमला हुआ।”
इस फैसले को लेकर कानूनी विशेषज्ञों और आम जनता में रोष है। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने इसे लेकर सोशल मीडिया पर लिखा, “इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट को स्वत: संज्ञान लेना चाहिए।”
कई लोगों ने सोशल मीडिया पर सवाल उठाया है कि “अगर ये हरकतें बलात्कार की नीयत नहीं दर्शातीं, तो फिर क्या दर्शाएंगी?”
आरोपियों के वकीलों का कहना है कि चार्ज फ्रेमिंग के समय अदालत को सिर्फ यह देखना होता है कि मुकदमा चलाने लायक मामला बनता है या नहीं, न कि सबूतों को बारीकी से जांचना। यह फैसला आगे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। वहीं, इस केस ने न्यायिक प्रक्रिया और जजों की चयन प्रक्रिया पर भी नए सिरे से बहस छेड़ दी है।